Friday 29 October 2010

पहाड़ संबंधी कुछ फुटकर , आम-फहम बातें :(२)

पहाड़ संबंधी आम बातों का सिलसिला आगे ले जाते हुए कांव -कांव पब्लिकेशन लिमिटेड के मालिक ब्लौगर 'अपूर्ण' ने अपनी टिप्पणियों के ज़रिये उनमें इज़ाफा किया है -- 1:युवक काम की तलाश में शहरों का रूख करते हैं , और घर पर रहते हैं माँ-बाप, पत्नी , बच्चे | पहाड़ों में बूढ़े, बच्चों और महिलाओं का प्रतिशत युवाओं से कहीं ज्यादा है | एक कहावत , पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के ही काम नहीं आती | 2:आज , पहाड़ी अपनी ही जमीन पर बने होटलों में बैरों का काम करता है | पहले कभी, पहाड़ियों को हमेशा फौज का लोलीपोप चूसने को दिया गया, गोया वे और कुछ नहीं कर सकते हों | 3:हम ११ चचेरे भाइयों में से २ कंप्यूटर प्रोग्रामर हैं | एक पंडिताई का पुश्तैनी राग अलाप रहा है | बाकी ८ या तो होटल में काम करते हैं , या सपना पाल रहे हैं | ये पहाड़ के हर घर की कहानी है | पहाड़ संबंधी मेरा ज्ञान सिर्फ एक यात्री जितना है सो उनकी इन बातों को आपसे साझा करना बनता था यदि पहाड़ संबंधी कुछ और बातें आप यहाँ बांटना चाहें तो स्वागत है

Wednesday 27 October 2010

पहाड़ संबंधी कुछ फुटकर , आम-फहम बातें

  • "पर्वताःदूरतःरम्या" --इससंस्कृत कहावत का अर्थ है कि पर्वत दूर से ही सुन्दर/रहने योग्य लगते हैं !
  • पहाड़ों में प्रचलित 'रम' नामक पेय मूलतः समुद्री -टापुओं का माल है।
  • भारत में हिमालय से मोहब्बत बँगाली करते हैं और दुनिया में स्केंडिनेवियाई.
  • पहाड़ में सड़कें नेपाली और बिहारी मजदूर बनाते हैं .
  • सब होटलों का मल -मूत्र पवित्र नदियों में गिरता है.
  • ६ ये अब कूड़े के ढेर बनते जा रहे हैं
  • पानी पहाड़ों में दुर्लभ है और यात्री गंद मचाना ,प्रदूषण फैलाना धर्म मानते हैं .
  • वक्त धीरे चलता है वहां इसीलिए कहावत बनी ' पहाड़ जैसा दिन'.
  • पहाडी राज्यों में बहुत से लोग मराठी और राजस्थानी मूल के हैं.
  • १० हिमाचल की बजाय खाना उत्तराखंड का बढ़िया होता है
  • ११ सड़क,सुविधाएं हिमाचल की बढ़िया होती हैं
  • १२ चरस उत्तराखंड में जीवन शैली का का अंग है तो हिमाचल में अंतरराष्ट्रीय व्यापार का ।
  • १३ स्वदेशी शराब बनाने ,पीने का अदब लद्दाख में है
  • १४ पहाड़ में आदमी काम कम करता है , औरत ज़्यादा लेकिन डोगरा, कुमाओं, गढ़वाल, नागा ,लद्दाख स्काउट्स और गुरखा जैसी विश्व स्तरीय रेजीमेंट भी इन पहाड़ों की देन हैं .
  • १५ नेपाल के बाद माओवाद उत्तराखंड को खाने की ताक में है
  • १६ कश्मीर पर चर्चा खर्चा मांगती है !और...
  • १७ जो समाज कश्मीरी पंडितों के निष्कासन पर मौन है वो अवश्यमेव उन्हीं की नियती को प्राप्त होगा ,कल नहीं तो परसों -नरसों .
  • १८ बाई दा वे भारतीय पहाड़ों में सर्व- सुलभ सिगरेट ब्रांड कैप्सटन है .. ......आपका क्या ख्याल है ?

Monday 25 October 2010

मयखाने में --"जाने वाले सिपाही से पूछो....."

'उसने कहा था' , कहते हैं पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी की इस अमर कहानी का दुनिया की तकरीबन सभी प्रमुख भाषाओं में तर्जुमा हो चुका है और इसके बगैर प्रेम कथाओं का कोई भी संग्रह अधूरा है१९६० में इस कहानी पर आधारित इसी नाम से फ़िल्म भी आई थी जिसमें मन्ना डे ने मखदूम साहब का ये गाना सलिल दा के निर्देशन में गाया थासुनील दत्त पर फिल्माए इस गाने को देख कर एक ही लफ्ज़ ज़ेहन में आता है --ईमानदारी

Friday 22 October 2010

मयखाने में म्याऊं गान

धवल वेश धारी ये क्रूस पूजक मसीही बालक 'म्याऊं गान' करते कितने भले मालूम देते हैं इसका ताल्लुक उनके गायन से भी ज़्यादा इस बात से है कि श्रोताओं को हँसा-हँसा कर दोहरा करने पर भी वे स्वयं गंभीर बने रहते हैंमुझे लगता है ये STOIC सम्प्रदाय का कोई अभ्यास है जिसमें खुशी और गम से परे रहने की तालीम दी जाती है--

Monday 18 October 2010

मयखाने में रे साहब के शतरंज के खिलाड़ी

टेलीफिल्म 'सदगति' के अलावा सत्यजित रे ने महज़ एक फीचर फ़िल्म हिंदी में बनायी --अमर कथा शिल्पी प्रेमचंद की कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी' पे आधारित और इसी नाम से । कहानी और फ़िल्म में कई जगह फर्क है मग़र आत्मा वही है । आपने देखी है ? क्या कहा अभी जल्दी में हैं ? ...तो फिर इसे न ही देखें तो अच्छा । हालांकि ये तो महज़ शुरुआत है मग़र जब फुर्सत हो सिर्फ तभी देखने की चीज़ है .......बड़े लोगों की चीज़ है साहब कोई बम्बैया बाईस्कोप नहीं !

Sunday 17 October 2010

मयखाने में रायता

खाना चूंकि खाने की चीज़ है ,जीने के लिए खाना ज़रूरी है सो खाता हूँ और खाने के बारे में ज्ञान बघारने वालों से तो ख़ासा खार खाता हूँ . जनाब विनोद दुआ तो खैर फिर भी कभी -कभी मगर श्री वीर सांगवी को तो जब देखिये खाने ही के बारे में लिखता -बोलता पाता हूँ . इन हज़रत को कश्मीर समस्या और स्टीम्ड पीकिंग डक पकाने के बारे में एक ही सांस में बोलते भी देखा जा सकता है . मैं नहीं समझता कि और मुल्कों में ऐसी हस्तियाँ न होंगी मगर पांच सितारा होटलों , जहाज़ों और शताब्दी ,राजधानी टाइप गाड़ियों में खाने की बर्बादी के खौफनाक मंज़र जिन्होनें देखे हैं वो अमरीका के साबिक हुक्मरान जनाब जार्ज बुश के इस बदनाम ओब्ज़र्वेशन से ना-इत्तेफाकी नहीं रख सकते कि मिडिल- क्लास हिन्दोस्तानी खाते बहुत हैं . इस पर काफी खिंचाई हुई थी उनकी मगर कुछ गलती उनकी भी थी . कहना चाहिए था कि खाते कम हैं , बिखेरते और बघारते ज़्यादा हैं . जिसे देखिये टी. वी. पे खाना पकाने सिखाने चला आ रहा है . सो खाने और खाना प्रेमियों के मुताल्लिक ऐसे घृणित विचार रखने के नाते मुझे कोई हक़ नहीं बनता कि मैं खाने या उसके स्वाद के बारे में पीने के इस मंच पे अपने विचार बिखेरूं या कहिये रायता फैलाऊं! मगर बात है ही ऐसी के कहाँ जाऊं . हाल-फिलहाल मुक्तेश्वर से लौटना हुआ . रस्ते में जगह थी साहब सलड़ी. हल्द्वानी से भीम ताल की चढ़ाई के रस्ते में पड़ती है . होंगी कोई सात -आठ दुकानें जहाँ लोग अक्सर चाय-शाय के वास्ते रुक जाया करते हैं . एक दूकान कोने वाली जिसके बाहर गाड़ियाँ धोने के वास्ते एक हौज भी था, ब्रेड पकौड़े और रायता का अजब कम्बीनेशन बेचती देखी . भूख लगी थी ले लिया . रायता अन्दर जाते ही कविराज भूषण से लेकर अब तक पढी सभी वीर रस की कवितायें याद आने लगीं . कानों से धुआं और आँख से पानी . पता किया तो बताया कि साहब पीसी हुई राई का कमाल है , ताज़े कसे खीरे और मूली के लच्छे भी गज़ब ढाते थे मतलब गाढ़ी मदमाती दही में तरावट का वो मंज़र के क्या कहिये!एक रोड साइड की दूकान और ये शऊर ,दिल किया फोटो ले लें . मगर फिर आवाज़ आई कि क्या खाना -टाना ही रह गया लिखने को . वापसी के हफ्ते भर बाद जगह का नाम भूल गया मगर स्वाद नहीं तो कबाड़खाने वाले भाई अशोक पांडे से पूछ-ताछ की . उन्होंने बताया के मालूम पड़ता है सलड़ी का रायता चख लिया इसीलिये अब तक सन्नाटे में हो . मैंने सस्ता शेर पे उनके रायते संबंधी शेर और रायते के बारे में कबाड़खाने पे पोस्ट ज़रूर पढी थीं मगर समझ अब पाया हूँ .

Saturday 16 October 2010

मुख़्तसर में मुक्तेश्वर (अंतिम भाग )

गेस्ट हाउस की छत पे हमें पहाड़ी चिड़िया 'गोंतियाली'(बार्न स्वेलो ) का घोंसला दिखादेखते ही पहचान इसलिए गए चूंकि नैनीताल -वासिनी विनीता यशस्वी के ब्लौग पे इस चिड़िया की बाबत हम पढ़ चुके थेभाई शरद तिवारी के 'फ्रेंड्स एस्टेट' में मटरगश्ती की जहाँ उन्होंने स्टीविया , लेमन ग्रास और एक और खुशबूदार जड़ी-बूटी के पौधे के बारे में हमें जानकारी दी जिसका के इस्तेमाल कुछ चीज़ों में काफी कारगर बतलाया जाता है । बहरहाल , ताज़े, कच्चे भुट्टों का स्वाद भी गज़ब का था और मूलियों का तो कहना ही क्या कचिया ,मुलायम भुट्टों की मिठास, झरने में धुली शुभ्र -वर्णा मूलियों का तीखापन , सिगरेट का मद्धिम धुआं और उसपे पहाड़ी वन-औषधियों की दिलकश खुशबू माहौल को मायावी बनाये दे रही थी मुक्तेश्वर का असल आकर्षण है पर्वतराज हिमालय की हिम-मंडित श्रृंखला का १८० डिग्री का दीदारसवेरे -सवेरे ये चोटियाँ बिल्कुल साफ़ नज़र आती हैं और फिर दिन चढ़ने के साथ -साथ बादलों में छिपती जाती हैंये तस्वीर हमने दोपहर डेढ़ बजे ली थीइस नज़ारे के लिए आपको पी डब्लू डी गेस्ट हाउस के लान में खड़ा होना पड़ता है 'बिना आज्ञा प्रवेश वर्जित' की तख्ती को नज़रंदाज़ करते हुएइसी गेस्ट हाउस के पीछे कुमाऊँ मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस से भी हिमालय के दीदार किये जा सकते हैं या चाहे तो 'चौथी जाली' की चट्टानों पे खड़े होके देखिये ।यहाँ आप 'रॉक - क्लाइम्बिंग और 'रिवर- क्रॉसिंग ' के अभ्यास में भी हाथ आज़मा सकते हैं। ' चौथी जाली' जगह का असल नाम है और स्थानीय लोग तथा 'आउटलुक ट्रेवलर' दोनों इसी नाम का प्रयोग करते हैं मग़र कुछ हरामी होटल वालों ने उसे 'चोली - जाली' लिख मारा है वहां ,आप कन्फ्यूज़ न हों । यूं तो मुक्तेश्वर में हर जगह आप हिमालय की गोद में ही होते हैं मग़र बात है १८० डिग्री के नज़ारे कीवैसे एक बार सोना पानी में हुई ऐतिहासिक ब्लौगर मीट में भी ऐसा ही सुन्दर हिम दर्शन मिला था । जानवरों की दवा-दारू और नस्ल पे रिसर्च के वास्ते यहाँ आई वी आर आई नाम से एक मशहूर संस्थान भी है जिसका कैम्पस ला-जवाब है , बेमिसाल है । लिंगार्ड हाउस ,जहाँ हम रुके , इसी की प्रोपर्टी है । हो सके तो ज़रूर देखना चाहिए चूंकि बांज के पेड़ों का अद्भुत जंगल भी इसी परिसर में आता है और सख्त निगरानी की वजह से ये पेड़ यहाँ सुरक्षित बने हुए हैं । इसके अलावा मुक्तेश्वर का हर मोड़ मस्त है , हर मंज़र ज़बरदस्त है । यदि दिल्ली से जाना हो तो मुक्तेश्वर जाने के लिए नैनीताल से भी जा सकते हैं और हल्द्वानी से भी . बरसात को छोड़ कर सभी ऋतुएँ अनुकूल हैं सफ़र के लिएतो फिर देर किस बात की निकल चलिए मुक्तेश्वर की ओर.... और हाँ भोले बाबा पे मेरी तरफ से भांग-बूटी चढ़ाना मत भूलिए बाकी जो है सो है ! मयखाना

Wednesday 13 October 2010

मुख़्तसर में मुक्तेश्वर( भाग-१)

मुक्तेश्वर के सफ़र में मेरे हमसफ़र रहे शरद तिवारी जिन्हें ग़ज़लों के कद्रदान एफ. एम . गोल्ड चैनल से प्रसारित होने वाले 'अंदाज़े बयां' और दीगर प्रोग्रामों में चाव से सुनते हैंलखनऊ में पले-बढे शरद का पहाड़ों से नाता पुराना है, पुश्तैनी है । वहां की समस्याओं से सरोकार रखते हुए 'फ्रेंड्स' नामक अपनी संस्था के ज़रिये अपना योगदान करते रहते हैं और अब वहीँ बस जाने का इरादा रखते हैंप्योर उर्दू के शानदार तल्फ्फुज़ के धनी शरद भाई ग़ालिब और मीर के अलावा वाल्मीकि और तुलसीदास के कम्पेरिज़न पे भी क्लास ले सकते हैंबहरहाल, मैंने एक रात उस कुटिया में काटी जो उन्होंने अपने कंस्ट्रक्शन वगैरह की निगरानी के लिए ले रखी हैअंग्रेज़ी पत्रकारिता के जाने -माने नाम और मौजूदा सीनियर एडिटर --'तहलका'-- जनाब रमन किरपाल किसी स्टोरी के सिलसिले में आये हुए थे ,साथ में थे भाई नगेन्द्र मिश्रा जो स्वेच्छा से पुलिस की नौकरी छोड़ कर 'फ्रेंड्स' संस्था के ज़रिये अब रमन और शरद के साथ पर्वतीय समाज की सेवा में लगे हुए हैं दोनों हमारे साथ कुटिया में ही टिके रहेअगले दिन शरद और मैं लिंगार्ड हाउस में शिफ्ट हो गए जो अंग्रेजों के ज़माने का एक ला-जवाब रेस्ट हाउस हैप्राचीन शिव मंदिर के अलावा मुक्तेश्वर का कोई ख़ास क्लेम टू फेम नहीं हैहाँ एक और पुराना गेस्ट हाउस ज़रूर है जहाँ मशहूर शिकारी जिम कार्बेट अक्सर रुकना पसंद करते थे मग़र वो तबकी बात है जब शेर बघेरे हुआ करते होंगे , हमें तो फ़कत - गीदड़ नज़र आये लेकिन कहते हैं गीदड़ अगर है पास तो शेर भी वहीँ - कहीं होगा .........ख़ैर ,हमें धूम्र-धूसरित दिल्ली के नज़दीक एक और लवली पहाड़ी ठीया मिल गया है . आपके शहर-ऐ-बीमार के भी आस -पास कोई होगा , अब ढूंढ भी लो मेरी जान !