कई रोज़ बाद खुल के धूप खिली है । प्रशांत महासागर और आसमान की नीलिमा आपस में हिली-मिली जाती हैं मानो कहती हों कहाँ पाओगे हमें यूँ फिर से सोच लो अब भी ऐ मुसाफ़िर । लेकिन मुसाफ़िर को तो चले ही जाना है । साहिल पे टहलते हुए देखता है वो एक बच्चा जो दुनिया के हर रंजो-ग़म और डर से परे अपने पिता के साथ गेंद खेलने में मगन है । ये टापू ही उसका घर है । टापू जो 600 मीटर समंदर में डूबा है और साढ़े सात सौ मीटर आसमान में उठा हुआ है । एक ज्वालामुखी पर्वत जो कैमीलिया के सुर्ख लाल फूलों और दहकते शोलों दोनों का घर है । ये जज़ीरा कि ज्वालामुखी ही जिसकी ज़िंदगी है और वही मौत भी । सोचता है मुसाफ़िर कि हमारी भाषा और साहित्य में ये शब्द "ज्वालामुखी" कैसे इतना रच बस गया । हमारे यहाँ तो बस अंडमान द्वीप समूह में एक टापू पे है एक सक्रिय ज्वालामुखी जहाँ लोग आते-जाते भी नहीं । जो चीज़ आस-पास हो ही ना वो कैसे किसी भाषा का हिस्सा हो सकती है । यहाँ तक कि चुटकुलों में भी है मौजूद ... वो कहा है ना पहले दो साल चंद्रमुखी, फिर सूरजमुखी और फिर..और फिर वही ज्वालामुखी । तरल-गरल हलक से उतारा ही है कि सामने पूल के पास एलो वेरा उर्फ़ ग्वारपाठे उर्फ़ घृतकुमारी का एक बड़ा सा झाड़ दीखता है ।बोतल पर लिखे नाम से याद आता है कि एलेक्जेंडर द ग्रेट उर्फ़ सिकंदर महान् की फ़ौजों ने एक दफ़ा क्रेट द्वीपों पे सिर्फ़ इसलिए धावा बोल दिया कि यही एलो वेरा इफ़रात में पैदा हुआ करता था वहाँ जो घावों को जल्द भरने और खूबसूरती बढ़ाने की चीज़ों के अलावा कुछ दीगर मदों में भी इस्तेमाल होता रहा है । मतलब अपने घाव भरने के लिए दूसरों को घाव देना यही है सिकंदर होना, यही है ज़रूरी महान् कहलाने के लिए ।
लाहौल विला....सिगरेट सुलगा लेता हूँ । हवा तेज़ है झप्प से जल कर खत्म हो जाती है । दूसरी, तीसरी, चौथी ...मैनेजर साहब इशारा करते हैं । इस रिज़ॉर्ट के पीर, बावर्ची , भिश्ती, खर होने के अलावा ड्राइवर भी वही हैं जो मुझे बंदरगाह छोड़ने वाले हैं । किस रोज़ जहाज़ किस बंदरगाह से रवाना होगा ये हवा के रुख पर निर्भर करता है और मोतोमाचि की जगह आज बारी दूसरे पोर्ट की है । गाड़ी में सवार पोर्ट पहुँचता हूँ । अगर बड़ा जहाज़ लूँ तो आठ घंटे और छोटी जैट बोट तो एक घंटा चालीस मिनट । मैनेजर साहब बताते हैं कि इसमें जैट जहाज़ का ही इंजिन लगा है और सी-सिकनेस का भी शुभा नहीं सो यही तय की गई है । बोट रवाना हो चुकी है । अलविदा ऐ ओशिमा, फिर मुलाक़ात हो न हो मग़र इंशाअल्लाह ...हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा ।
Sunday, 25 March 2012
अलविदा ,सायोनारा ऐ ओशिमा !
20 मार्च, 2012
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बेहद खूबसूरत, दिलचस्प और दुर्लभ! धन्यवाद छोटा शब्द लग रहा है।
ReplyDeleteधन्यवाद आपका जो ये महसूस कराया कि हाँ ग्वार पाठे का मुरब्बा खा के लिखना बेकार ना गया ।
Deleteखूबसूरत तो है ही, आज की पोस्ट काफ़ी दार्शनिक भी लग रही है। मैं भी सोच रहा हूँ कि अगली पोस्ट लिखने से पहले ग्वार पाठे का मुरब्बा खा लूँ। कहाँ मिलता है?
ReplyDeleteमैंने बनाया था अनुराग भाई । आप के लिए रखा है जब मिलेंगे तो लीजिए ।
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