Saturday, 21 January 2012
हिंदी सभा (जापान) का ऐतिहासिक अधिवेशन सम्पन्न
इक्कीस जनवरी की शाम, तोक्यो का पुराना रिहायशी इलाक़ा निशि ओजिमा रहा गवाह उन ऐतिहासिक पलों का जिन पर कोई भी भारतीय गर्व करेगा । अगले सप्ताह तोक्यो विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में होने जा रहे अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का नेह-निमंत्रण लिए डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण स्वयं उपस्थित हुए । जापान में सौ बरस से ऊपर के हिंदी अध्यापन के इतिहास में एक दशक के हिस्सेदार हैं प्रोफ़ेसर सुरेश ऋतुपर्ण । पिछले तीन दशकों से भारत के बाहर हिन्दी की अलख जगाए रखने वाले प्रोफ़ेसर को मयख़ाना सैल्यूट करता है । माँ भारती के परम पुनीत यज्ञ का साक्षी होने का सप्रेम अनुरोध करते हुए प्रोफ़ेसर ऋतुपर्ण ने विश्व-भर से हिंदी मर्मज्ञों के तोक्यो पधारने की पूर्व-सूचना दी और अमर स्वतंत्रता सेनानी रासबिहारी बोस के तोक्यो स्थित समाधिस्थल के दर्शन का आह्वान भी सदस्यों से किया । इस अवसर पर प्रकाशित हो रही दुर्लभ एवम् ऐतिहासिक सामग्री का परिचय हिंदी प्रेमियों को देने के बाद आपने त्रिनिदाद-टोबैगो, फ़िजी एवम् मॉरिशस में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की जानकारी भी साझा की । उन्होंने बताया कि इस आयोजन की सफलता के लिए तोक्यो वासी भारतीय समुदाय के हृदय-सम्राट श्री जगमोहन चंद्राणी उनकी हर संभव सहायता कर रहे हैं । सभी सदस्यों ने इस पुनीत कार्य में सहयोग के लिए श्री चंद्राणी जी को धन्यवाद दिया ।
साथ ही अधिवेशन में उपस्थित थे हिन्दी सभा के संस्थापक सदस्यगण-- रोहन अग्रवाल (इंटेल), प्रोफ़ेसर अखिलेश सुर्जन (संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय, तोक्यो ), राजेश शर्मा 'जापानी' एवम् सुशील गोयल (लेनोवो), संदीप शर्मा ( इंडिया इंटर्नेशनल स्कूल योकोहामा), अजय गौतम( सोनी ) सपरिवार , सॉफ़्टवेयर विज्ञानी तरुण मोहता एवम् चंद्र शेखर पंत (ह्यूलेट-पैकर्ड) ।सभी सदस्यों ने जम कर हिंदी सभा को नई ऊँचाइयों तक ले जाने की वकालत की । साथ ही, नए सदस्यों का स्वागत भी किया गया जिनमें शामिल हैं हिंदी प्रेमी जापानी हिरोशि मात्सुयामा, 15 वर्ष से जापान में रह रहे कावासाकी वासी भारतीय सॉफ़्टवेयर विशेषज्ञ हरीश मनकानी, अयोध्या से जापान पहुँचे अंतर्राष्ट्रीय वित्त प्रबंधन विशेषज्ञ संतोष कुमार पाण्डेय और तोक्यो विश्वविद्यालय में एयरो-स्पेस टैक्नॉलजी के शोधार्थी शशांक खुराना । तोक्यो में कड़ाके की सर्दी और वर्षा के कारण बाल-सभा स्थगित की गई लेकिन उपस्थित बालक वृंद ने साथियों के सानिध्य लाभ का पूरा आनंद लिया ।
अधिवेशन में सर्व-सम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया कि हिन्दी और जापानी की प्यारी-प्यारी फ़िल्मों का प्रदर्शन हिंदी सभा के नियमित आयोजनों में जगह बना सकता है और इसके लिए आवश्यक प्रेक्षा-गृह एवम् प्रोजैक्टर की व्यवस्था की जानी चाहिए जो इतने सारे सॉफ़्टवेयर विशेषज्ञों की उपस्थिति में कोई कठिन कार्य नहीं है । जापानी फ़िल्मकार अकिरा कुरोसावा की सेवन समुराई का हिंदी की अमर फ़िल्म शोले पर प्रभाव और रोशोमन जैसी फ़िल्मों के निहितार्थ की चर्चा इस अधिवेशन की विशेष उपलब्धि रही । हिन्दी सभा के निष्क्रिय सदस्यों को चेतावनी जारी किए जाने के अलावा बैठक में स्वादिष्ट खान-पान संस्कृति के नितान्त अभाव की चर्चा शून्य काल में सुनाई दी और इन दो विषयों पर आगामी नियमित बैठकों में विस्तार से चर्चा किए जाने के आश्वासन के साथ ही हिंदी सभा जापान का ये यादगार अधिवेशन संपन्न हो गया ।
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इस अच्छी जानकारी के लिए बहुत बधाई मुनीश भाई . एक हिन्दी भाषी होने के नाते हिन्दी से जुड़ी ऎसी खबरें निस्संदेह आनंदित करती हैं . मगर खेद इस बात का है कि हिंदी उन अखाड़ेबाज़ों के चंगुल में फँसी हुई है जो हिन्दी का खाते हैं . इसी के नाम पर अपनी दूकानदारी चलाते हैं . दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हिन्दी की उन्नति की तथाकथित लड़ाई ढकोसलेबाज़ ही ज़्यादातर लड़ते दीखते हैं . और विदेशों में जब कोई हिन्दी से जुड़े सम्मलेन होते हैं तो उनमें शिरकत का टिकट पाने में भी ऐसों के बीच ही होड़ होती है . अगर आप गौर करें तो पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी को लोकप्रिय बनाने का काम मुख्यतः बाज़ार ने ही किया है . इसमें कोई बुराई नहीं मगर बाज़ार फिर उसे अपने हिसाब से ही चलाएगा . बेशक अंग्रेज़ी को भी बाज़ार ने ही बहुत आगे बढ़ाया है मगर इसमें भी कोई शक नहीं के बाज़ार के व्यापारियों से कई गुना क़द्दावर अंग्रेज़ी भाषा के साधक और पोषक रहे हैं . इसीलिए हिन्दी के बाज़ार की बहती गंगा में हाथ धोने उतरी पेंगुइन जैसी कम्पनी भारत में संगोष्ठी करती है तो उसका शीर्षक रखती है "हिन्दी बदलेगी तो चलेगी" . यानी हिन्दी की नियति के ये दलाल निर्धारित करेंगे की वह कैसे चलेगी . क्या किसी अंग्रेज़ी मुल्क में ( या भारत में ही) ये अंग्रेज़ी को बदलने की बात करते हैं ? वैसे भी अंग्रेज़ी में ज़रा भी गलती करने वाला भारतीय उपहास का पात्र बन जाता है जबकि किसी अंग्रेज़ीदां का हिन्दी का अल्पज्ञान उसे आदर का पात्र बनाता है.सच तो ये है कि कोई भी भाषा चलते-चलते अपने में आवश्यकतानुसार परिवर्तन लाती रहती है बशर्ते कि उसे चाहने वाले समाज में हों .
ReplyDeleteशुक्रिया साझेदारी के लिए शरद भाई । यहाँ हिन्दी 104 साल से पढ़ाई जा रही है लेकिन कितने भारतीय जानते हैं इस बारे में क्योंकि सारा समाज यूरोपोन्मुखी हो चुका है । धन्यवाद आपके प्रोत्साहन के लिए।
ReplyDeleteकुछ वर्ष पूर्व रोमानिया से दिल्ली आकर हिन्दी का अध्ययन कर रही एक लड़की को कहते सुना था कि उसे हिंदी भाषी भारतीयों की ये बात पसंद नहीं कि वे अक्सर हिन्दी शब्दों की जगह अंग्रेज़ी शब्दों का बिलावजह इस्तेमाल करते हैं मसलन विश्वविद्यालय की जगह यूनीवर्सिटी बोलते हैं.मुझे लगता है हमारे यहाँ हिन्दी तो बोली जाती है मगर अपनी भाषा के गौरव का अहसास नहीं है.अपनी भाषा के महत्त्व की अनुभूति नहीं है.
ReplyDeleteयूनिवर्सिटी बोलें तो भी ठीक है शरद भाई लेकिन बात है वृत्ति की । अब आप ही देखिए 104 साल हो गए यहाँ हिन्दी पढ़ाई जा रही है लेकिन कब उसे मीडिया ने उभारा । तो ऐसे में कैसे जागे आत्मगौरव।
ReplyDeleteतोक्यो हिन्दी सभा के बार में जानकर अच्छा लगा। परिचय व चित्रों के लिये आभार!
ReplyDeleteधन्यवाद अनुराग जी आपके बारे में जानकर भी अच्छा लग रहा है मेरे मित्रों को।
DeleteMunish Jee,
ReplyDeleteBahut aabhar is laghu-prayaas ko apne bahuaayami blog me sthan dene ke liye !! 'Hindi Sabha' Japan aapke margdarshan se labhanvit hoti rahe, isi aakanksha ke saath,
Akhilesh
धन्यवाद आपका भी
ReplyDelete@मुनीश-यूनिवर्सिटी में लग गई बड़ी 'ई' की मात्रा से लोगों की उच्चारण की गलती उजागर करना मेरा आशय नहीं था . यह तो मेरी तरफ से ही हो पड़ा . वैसे अक्सर अंग्रेज़ी शब्दों का बिलकुल सटीक उच्चारण देवनागरी लिपि में संभव नहीं होता .यह तो अनुभव की बात होती है . मैं तो यह बताना चाह रहा था कि हिन्दी बोलचाल में प्रचलित इस अंग्रेज़ी शब्द के प्रायः इस्तेमाल पर रोमानी बाला को ऐतराज़ था . उनका कहना था कि जब उसे आसानी से हिन्दी में बोला जा सकता है तब फिर अंग्रेज़ी क्यूँ !
ReplyDeleteजी हाँ सही कहा आपने । आपकी बात मैं समझ रहा हूँ । अनुरोध यही है कि ये सिलसिला चालू रखिए ।
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