Saturday, 6 February 2010

जाने कहाँ गए वो घर.......

आजकल की फिल्मों में भी होते हैं घर मगर पता नहीं क्यों वैसे नहीं होते जैसे पहले की फिल्मों में होते थे ........ बिलकुल उत्तर भारत के किसी कस्बे के से ..किसी भी कस्बे के जिनमें अरहर की दाल और चावल , रोटी , सूखेआलू और कभी-कभार खीर और खरबूज़ों की ख़ुशबू वास करती होमिसाल के तौर पे फिल्म 'अपना देश' का ये गीत देख लीजिये ! जिनघरों में मैं रहता रहा वो बिलकुल हू--हू ऐसे नहीं मगर ऐसे ही थे ...... कुछ किराये के और एक पुश्तैनी भीवो कौन किसिम के लोग हुआ करते होंगे जो बंबई में रह कर फ़िल्में बनाते थे मगर खुशबू ऐसी ही होती थी जैसी मेरठ मुरादाबाद और मुज़फ्फरनगर या भोपाल , अलवर और देहरादून के घरों में हुआ करती थीक्या पुराने कस्बोंऔर शहरों में भी वो खुशबू नहीं रही या अरहर की दाल भी सिंथेटिक हो गयी या फिर माजरा कुछ और है ..जो भी है हिंदी फिल्मों में अब अपने से घर नज़र नहीं आते, जाने क्यों ?मेरा मतलब घरों के नक़्शे से नहीं मगर दरो-दीवार और पर्दों के टेक्सचर से ज़रूर है , ख़ास कर उनकी गंध से । इस गीत को देख कर मुझे वैसी ही रसोई तक कीगंध आती है जैसी की उस तरह के घर में होती होगी , हालांकि गीत का विषय रसोई नहीं है और ही इसमें कोई व्यंजन पकता दीखता है, फिर ये ऐसा क्यूं है या मैं ऐसा क्यूं हूँ ? .... ,

10 comments:

  1. हर बदलाव के साथ सिनेमा ने भी अपने में बदलाव किया है। वैसे तो आज भी वह घर आप को कस्बे आदि में मिलने के साथ साथ मेट्रो शहरों के कुछ इलाकों में भी मिल जाएंगे लेकिन चूंकि मामला आगे बढने और कुछ डिफरेंट दिखाने का है, सो अब वह घर नहीं दिखते।

    मेरी भी पसंद ऐसे ही परिवेश रहे हैं।

    आप ने यह अलग ही किस्म का विषय उठाया है जिस पर कि आजकल की आपाधापी में कम ही ध्यान जाता है या फिर जाता ही नहीं।

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  2. वाकई एक अलग सा विषय उठाया है...एक दशक से उपर हुआ जब भारत से अपने घर की खुशबू जहन में बसाये निकल आया था.

    अब लौटता हूँ तो अपने ही रिश्तेदारों के घरों से वो खुशबू खो गई है. मार्डन किचन, फर्नीचर..

    पिज़्ज़ा और बार बे क्यू कबाब की उठती गंध में न जाने उस घी डले दाल चावल और आलू की भूजिया और खिचड़ी/चोखा की महक कहाँ दब गई है.

    हमारे पहुँचने पर अक्सर टोकना ही पड़ जाता है कि वेस्टर्न खाना ही खाना होता तो आते क्यूँ..एक दिन जरा देशी खाना खिलवा दो.

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  3. न छींट दार परदे हैं ,न दरवाज़े पे देहारियाँ
    न लाल रंग की फर्श न जंगले वाली खिड़कियाँ
    और
    भाई... दाल पके.... तब तो आए वो महक.....

    अच्छा, मुझे लगता था खाली मेरा ही दिमाग उपजाता है /खोजता है ऎसी बेबुनियादी बातें .....
    एक बात और अक्सर सोचती हूँ के आज का मुम्बई कैसा होगा ?
    जबकि मेरे मन में वही पुराना ७० की फिल्मों वाला बड़े बड़े बंगलों वाला बम्बई बसा है

    पोस्ट अच्छी लगी

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  4. सब कुछ कहें खो गया है ......... आधुनिकता की दौड़ में ....

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  5. गर्डर,फ़र्शी के घर
    फ़र्शियो की थन्दक /
    लकडी के बल्लियो की छ्ते ,
    चौथी बल्ली के नीचे सोने से
    सपने जाते भटक//
    आन्गन की बाडा ? ,
    सब बाडो के बीच
    के कोने मे पेड के नीचे का मन्दिर शन्कर का,
    बाडो मे चलते वक्त
    चुभ जाना कन्कर का /
    तुलसी क्यारा से जुडी क्रिश्न कि कथा,
    वो सन्युक्त परिवारो की व्यथा /
    घरो मे इतने जादा लोगो का होना,
    वो एक रजाई मे
    चार क सोना

    लकडी के चुल्हो ,
    पर गर्म होते पानी का धुआ ,
    आन्गन के एक कोने से ऐसे बाहर जाता हुआ,
    जैसे पतली गली से निकल लेता कोई /

    पैसो कि दौड
    सब बाते गौण /

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  6. मुनीश जी,
    फिल्मों मे भले ही ना रहे हों ऐसे घर, मगर हम तो आज भी इन्ही मे रहते हैन और आगे भी रहते रहेंगे.

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  7. जो जहां के हैं वहीं की खुशबू लिये हैं

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  8. MY Dear Satish ji , Samir ji,Parul, Digambar,abcd,Neeraj and Kajal ji i thank you all from the core of my heart for sharing my nostalgia and a bit of madness perhaps.

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  9. अरे छोडिये खुशबू.. अब वहां घरों में खाना बने तो खुशबू आये.अब तो मेहमान के आने पर इटालियन , चाइनीज खिलाने बाहर ले जाया जाता है.

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