Sunday 16 August 2009

मयखाने में वोल्गा और "मैं आया हूँ...."

नई दिल्ली के दिल कनाट-प्लेस के दिल सेंट्रल-पार्क से खड़े होके देखिये तो ब्लॉक -बी की दुकानों में एक बोर्ड नज़र आता है जिस पे लिखा होता है 'वोल्गा' । ये एक बार-कम -रेस्तरों है । उसके अगल -बगल और कई हैं मसलन ' रोडियो 'और 'ज़ेन' वगैरह ,मगर एक अजब सी कशिश है वोल्गा में के कदम बरबस वहीं खिंचे जाते हैं । गहरा लाल रंग का कारपेट , छतों और दीवारों पे गैरिश से उभरे हुए डिज़ाइन, बड़े-बड़े फानूस और लाल कपड़ा मढ़ी कुर्सियां याने हर तरेह से पहली नज़र में आउट ऑफ़ फैशन ! जो लोग आते हैं यहाँ वो महज़ सस्ते के चक्कर में --,हालांकि बहुत सस्ता भी नहीं और ' हैप्पी -आर्ज़' वाला एक के साथ एक फ्री - ड्रिंक वाला मज़ा भी नहीं ! लेकिन शायद इसलिए चले आते हैं के बाहर निकलते ही अंडर - ग्राउंड मेट्रो की लिफ्ट आपको कार चलाने की ज़हमत से राहत देती है । पुराने पापियों के मुताबिक ये रेस्तरों 'कोल्ड -वार इरा' का एक ध्वंसावशेष है जब ''लाल रूस है ढाल साथियों.......'' नाम की ग़ज़ल काफ़ी पोपुलर थी और लेखक-पत्रकार ,बुद्धिजीवी रूस जाने का जुगाड़ बैठाते रहते थे ! फ़िर जब एक्स-रूसी खुफिया एजेन्सी के .जी.बी. का ये खुलासा सामने आया की कई अंग्रेज़ी अखबारों के एडिटर, इन्तेल्लेक्चुअल और कई अहम् पदों पे बैठे लोग उसके ' पे-रोल' पे थे तो ये भी फुसफुसाहट हुई की इस तरेह के कई लोगों का ये मनपसंद ठीया हुआ करता था ! हुआ करे ,आज ये मेरा भी है ! इसके गाढे लाल कालीन पे कदम रखते ही उम्रदराज़ वेटर की आंखों में एक ज़माना तैरता महसूस होता है जब बड़े-बड़े कालर की कमीज़ पहन के कनौतियों तक कलम बढाए लोग बेल-बौटम में फंसे घूमते थे और वो पोल्का-डोट्स खवातीन के ड्रेस पे... मरहबा! वो सोवियत-संघी पत्रिकाओं में लिपटे लंच के पैकेट ।वक्त की सितम्ज़रीफी देखिये के उस समय सोवियत संघ के प्रशंसक भी 'संघी' कहलाते थे , खैर जब ये सब था मैं बहुत छोटा बच्चा था और हैरानी ये है की बचपन में लौट जाने का एहसास कहाँ होता है --एक शराब- खाने की सजावट देख कर! .....दरअसल इस किस्म का इंटीरियर ७० के दशक की फिल्मों में खूब दिखाई देता था और शायद पैसे की कमी के चलते ये आज भी यहाँ वैसा ही है । ऐसी ही ट्रेड -मार्क सजावट का गाना देखिये जिसमें गाना सब पे भारी है मगर गुज़रे दौर की हर अदा भी लवली है ,प्यारी है । -:लवस्कार :-

5 comments:

  1. वाकई पुराने दिनों की याद ताजा कर दी आपने...कनात प्लेस में बहुत कुछ समाया हुआ है...पब ही सही लेकिन इसका भी अपना इतिहास रहा है, इस जानकारी को बांटने के लिए शुक्रिया...

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  2. समयांतर मासिक पत्रिका से कनाट प्लेस के काफ़ी हाउस को जाना है तो मयखाना से वोल्गा को। कनाट प्लेस किन किन कारणों से कनाट प्लेस है, यह जानना सभ्यता और संस्क्रति को जानना भी है।

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  3. वो एक ज़माना था जब सोविएत किताबों और मॅगज़ीन की धूम रहती थी और उनके साथ मिलने वाले चिकने ग्लेज़िंग कालेंडेरो को कैसे भूला जा सकता है. और वो झक्क सफेद पन्नों और सुंदर जिल्द वाली किताबें, क्या कहने! आज भी वैसी कारीगरी और सफाई नहीं दिखाई देती. असल बात तो ये है कि सुंदर चीज़ें दिल से बनती हैं टेक्नालजी से नहीं. तब द्रूज्बा-द्रूज्बा यानी दोस्ती-दोस्ती का नारा बुलंद था. मुझे याद है कि ट्रेड फेयर में सबसे बड़ा मंडप सोविएत संघ का होता था. भारत-सोविएत रिश्तों के नाम पर माहौल में एक भावुकता तैरती रहती थी और तथाकथित बुद्धिजीवी और लेखक इस भावुकता को अपने विचारों और हितों की पतवार से और तेज़ करते थे. आपने तो बस नॉस्टॅल्जिक टीस पैदा कर दी.

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  4. How nostalgic!
    During our University days, in the 70's, we were Dev Anand fans and we used to stand in advance booking queues for the first day first show tickets.
    Those were the days, my friend/we thought they'll never end....

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  5. THANK YOU DEAR FRIENDS FOR THE SPIRIT OF SHARING !

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