Monday, 13 July 2009
तस्वीरनामा : कश्मीर--( 2 )
श्रीनगर की सड़कों पर या तो मारुती ८०० और आल्टो जैसी नन-मुन गाड़ियों की बहार थी या फिर स्कोर्पियो जैसी बड़ी गाड़ियों की . बीच वालियों की कोई पूछ न थी . पहल गाम को निकले तो पता पड़ा बस वालों की हड़ताल है सो' भाड़ा फी सवारी' के हिसाब वाली एक टाटा सुमो पकड़ी. सड़क सपाट थी मगर ज़्यादा चौडी नहीं . हमारे अलावा लोकल जनता ही उस गाडी में भरी थी बल्कि ये समझ लीजिये की अप्रैल के उस पहले हफ्ते में पूरे श्री नगर में सिर्फ हम दो ही टूरिस्ट पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफ़र कर रहे थे . कुछ ही देर में बादामी बाग़ छावनी से आगे एक फौजी कोन्वोय हमारे आगे-आगे चलने लगा . हमारे बिलकुल आगे की जीप में एक काला मद्रासी जवान बैठा था जो डंडे के इशारे से हमारी गाड़ी को ओवर टेक न करने का निर्देश दे रहा था चूंकि ऐसे में सामने से आने वाली गाड़ियों को परेशानी होती और सड़क पर जाम लग जाता. गाड़ी में सवार लोकलों को जल्दी थी और उनमें से एक लड़का हमें सुनाता हुआ कह रहा था ''आ जाते हैं इंडिया से हमारे ऊपर राज करने, अपना बूट पोलिश जैसा चेहरा लिए '' , चूंकि मेरे मेरे भाई साहब ने तमाम उम्र राजस्थान पुलिस जैसी कड़ियल फोर्स में झोंक दी थी सो उनसे बर्दाश्त न हुआ मगर मैनें उन्हें बड़ी मुश्किल से रोक लिया . माहौल तनाव से भर गया . ऐसे में एक साहब जो किसी स्कूल के रिटायर्ड मास्टर थे उन्होंने मामला संभाला और हमें बताने लगे की आप लोग जहाँ से गुज़र रहे हैं इसे पाम्पोर कहते हैं और यहाँ की ज़ाफ़्रान या कहें केसर बड़ी मशहूर है . एक जगह लकड़ी के क्रिकेट- बैट का कोई मील भर लम्बा अम्बार लगा था . पता चला की बैट बनाने के लिए इंग्लिश विलो नाम का दरख्त सबसे बढ़िया होता है जो यहाँ खूब होता है .उन साहब ने हमें सलाह दी की रास्ते में ही अनंतनाग है जहाँ आप लोगों का एक पुराना मंदिर है सो वहां ज़रूर जाइए . हम जहाँ उतरे वहीँ वो लड़का भी उतर गया और अपने आप उसने हमें मंदिर तक पहुंचाया जो बड़ी संकरी सी गली के कोने पर बना एक पुराना सा मंदिर था जिसमें १२ वीं सदी की प्रतिमाएँ रखी थीं . उस लड़के के इस बर्ताव ने हमें हैरान कर दिया मगर अभी और हैरानी बाकी थी . पता चला वहां से ज़रा सा आगे मट्टन नाम का सरदारों का एक गाँव है जहाँ कुछ बहुत पुराने खंडहर हैं . ऑटो वाला आने- जाने के लिए ३०० रुपैये मांगने पे अडा था मगर १२ किलोमीटर के लिए इतने पैसे हमें ज़्यादा लगे और हमारी बात चीत का ग्राफ ऊपर उठने लगा . तभी एक लम्बा चोगा पहने,दाढी वाला नौजवान बीच में आ गया और हमें एक कोने ले गया . अपना नाम उसने बशीर बताया और ये भी की वो कोंट्रक्ट पे भरती एक स्कूल मास्टर है . उसने हमें सलाह दी की आप लोग यहाँ परदेसी हैं और आपको इस तरेह बीच बाज़ार ड्राइवर किस्म के लोगों से बहस नहीं करनी चाहिए चूंकि मामला बिगड़ सकता है आपका साथ देने कोई नहीं आएगा . हमने उसका शुक्रिया अदा किया और मट्टन जाने का इरादा बिलकुल ख़ारिज कर दिया . मैं उस आदमी से और बात करना चाहता था सो मैंने उसे चाय का न्योता दिया और वहीँ अनंतनाग उर्फ़ इस्लामाबाद के भीड़ भरे बाज़ार के एक कोने में हम एक टी स्टाल पे बैठ गए . मैंने उसकी हमदर्दी की वजेह जानना चाही तो कहने लगा ''आपके जैसा बस ज़रा साफ़ रंगत का हमारा एक दोस्त था दीपक , कभी हम उसके घर सो जाते थे कभी वो हमारे '' फिर उसने खुदा का कोई कॉल लिया और उसकी आँखें भर आयीं . कुल मिला कर पता ये चला सन ८८-८९ से पहले मज़हब का कोई फर्क वहां महसूस नहीं किया गया और आतंक की शुरुआत बेहद अचानक हुई और सारा मंज़र बड़ी तेज़ी से बदलता गया. दीपक सिविल सर्विस के इंटरव्यू राउंड तक जा पहुंचा था मगर एक दिन उसकी लाश मिली, उसके परिवार की महिलाओं के साथ बेहद बदसलूकी हुई और बचे खुचे लोगों को जान बचा कर जम्मू भागना पड़ा . बशीर का कहना था इन सब कुकर्मों में उस ऑटो रिक्शा ड्राइवर जैसे ही लोगों का हाथ था सो वो उन से नफरत करता है . फिर उसने हमें अपना चोगा हटा कर कंधे पे लगा तेज़ धार हथियार का निशान दिखाया और कहा की ये ईनाम उसे बीच-बचाव करने की एवज़ में मिला है . बहरहाल, हमने भरे दिल से उसका शुक्रिया अदा किया और पहलगाम का प्रोग्राम अगले दिन पे टाल कर श्री नगर लौट आये .
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
तसवीरें देखकर और पढ़कर मजा गया
ReplyDeleteबहुत सुन्दर तस्वीरें !
ReplyDeleteअक्तूबर में मुझे उस ओर ही जाना है ...आपने एक खिड़की सी खोली है जैसे....
ReplyDeleteDr. Saaheb Ocober is the best month to visit the valley. Chinaar leaves turn red before the fall and look very very beautiful. If u r going on your own then stay at any Hotel in Raj Baag area near Zero bridge. If u r vegetarian the best place is Krisna Bhojnalaya at Durgiana road . Have a great time there !
ReplyDeletethanx for this post ... very nice
ReplyDeleteबहुत मनमोहक तस्वीरे.
ReplyDeleteरामराम.
bahut hi sundar tasweer .......lagata hai kashmira bhraman ho gaya.......
ReplyDeletebeautiful scenery!
ReplyDeletenature is also eyewitness of kashmir terrorism.
दिन पर दिन आपकी कश्मीर यात्रा वृत्तान्त रोमांच की सारी हदें पार करता जा रहा है। किस्सागोई का आपका अंदाज़ तो बस पूछो ही नहीं, जिस तरह खतरों से खेलते हुए आप हम तक अपनी यात्रा की सीरीज़ पहुँचा रहे हैं, उसके लिए दिल की गहराइयों से शुक्रिया !
ReplyDeleteअगली किस्त का इंतज़ार रहेगा।
यूँ ही इसे धरती का स्वर्ग नहीं कहा गया है, तस्वीरें बयां करती हैं!!
ReplyDeleteमनभावन!!! आभार!
Dear Samir ji,Anil, Annapurna,Anurag , Awaaz,Tau shri, Om ji,Prem lata and Nanak thnx for sharing my experiences.
ReplyDeleteNo, dear Nanak there was no khatra -vatra just a load full of gloom only still we had very good time there. It was great fun to be in Kashmir by grace of God.
WoW WoW WoW !!!
ReplyDeleteapka ye tasveernaama dekh ke mai to yahi soch rahi hu ki mujhe kab mauka milega Kasmir jane ka...
I didn't mean to sound either important or officious. Please don't call it a rare honour. It was only my way of appreciating your blog. I am just like people like you--this professorgeeri doesn't make me at all stiff-necked. Treat me as a friend and an equal, if you really want me yo write on your blog.
ReplyDeleteIt is sad that the extension of the two-nation theory has almost ruined a beautiful place like Kashmir. I also remember my visits to a papier mache factory and observed closely how these articles are made. And the cherries strewn on the pavements---the local people called it 'glass'.And , in the factory---ye kahaani phir sahi.
Your post has reminded me of an old ambition, that of writing a novel. The protagonist of the novel 'Nausea' by Sartre says at the end of the novel, "But a time would have to come when the book would be written, would be behind me, and I think that a little of its light would fall over my past. Then, through it, I might be able to recall my life without repugnance."
Sometimes, I feel, it still can be done.
Planning a novel may take time ,but y not start writing your different experiences soon. I look forward to some nostalgia in prose, if possible.
ReplyDeleteThnx vinita for ur appreciation.
ReplyDeleteमुनीश जी,
ReplyDeleteआज तो इस पोस्ट को पढ़कर दिल भर आया. ऐसा लग रहा है कि मैं बँटवारे के टाइम का कोई किस्सा पढ़ रहा हूँ. सही में, बाद में जो चित्र आपने दिखाए हैं, वे भी अच्छे नहीं लगे.
काहे का बटवारा ? ऐसी की तैसी देश द्रोहियों की !
ReplyDelete