क़रीब चार सौ साल पहले बनारस में मंसूर नामक महात्मा हुए जिन्होने ईश्वर और जीव के शाश्वत संबंध पर गहरी रोशनी डाली और अनहलक-अनहलक (अहं ब्रह्मास्मि-अहं ब्रह्मास्मि) कहते हुए मौत को गले लगा लिया. उन्होने अपनी रचनाओं में ढोंग और पोंगेपन (धर्म चाहे कोई भी हो) पर बेखौफ़ चोट की. मयखाना में पेश है उनकी एक रचना:
अगर है शौक मिलने का, तो हरदम लौ लगाता जा।
जलाकर खुदनुमाई को, भसम तन पर लगाता जा।
पकड़कर इश्क़ की झाड़ू सफाकर हिजरए दिल को।
दूईकी धूल को लेकर मुसल्लह पर उड़ाता जा।
मुसल्लह फाड़, तसबीह तोड़, किताबें डाल पानी में।
पकड़ तू दस्त फिरश्तों का, गुलाम उनका कहाता जा
न मर भूखों, न रख रोजे, न जा मस्जिद न कर सिजदा।
वज़ूका तोड़ दे कूज़ा, शराबे शौक़ पीता जा।
हमेशा खा, हमेशा पी, न गफलत से रहो इक दम।
नशे में सैर कर, अपनी खुदी को तू जलाता जा.
न हो मुल्ला, न हो ब्रह्मन, दूईकी छोड़कर पूजा.
हुक्म है शाह कलन्दर का, अनलहक तू कहाता जा.
कहे मंसूर मस्ताना, मैने हक़ दिल में पहचाना.
वही मस्तों का मयखाना, उसी के बीच आता जा.
मुनीश जी शुक्रिया आपका इस रचना को हम तक पहुंचाने का. इनसे पहले साबका नहीं पडा था इसलिए इनके तेवर से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया. हर तरह के ढोंग और पोंगा पंथी के विरोध का आपने ज़िक्र कर ही दिया है, मैं इनकी भाषा की सहजता से भी प्रभावित हूँ. कुछ ऐसी ही सहजता वली दकनी की फुटकर तौर से पढ़ी रचनाओं में भी दिखी थी.तेवर इनके ज़्यादा कड़क लगे.
ReplyDeleteखुबसूरत अभिव्यक्ति जिसमे नयापन लिये हुये है एहसास और कटाक्ष ........ बहुत बढिया
ReplyDeleteBahut khub...
ReplyDeletemujhe to inke baare mai aaj hi pata chala...
behtreen post...
बहुत बढिया पोस्ट प्रस्तुत की है।आभार।
ReplyDeleteआभार मुनीश जी!
ReplyDeletenihal kar diya !
ReplyDeleteDear sanjay,om,vini,paramjit,anil and albela ji ,
ReplyDeleteap sab saaheban ka shukriya ki apne mere dost ki post ko tavajjo dee aur samjha!
भाई मुनीश, मैं आपका शुक्रगुजार हूँ क्योंकि आपने ही मुझमे साहित्य की समझ पैदा की और उसके जरिये रोटी कमाने की जुगत भी आपने ही बताई, रही संगीत कि बात तो उसमें भी अप्रत्यक्ष योगदान आपका है !
ReplyDeleteMANSOOR ko blog ki duniya me lane le liye nanak ji aur munish ji ko koti koti sadhuwad ....
ReplyDeleteआओ हम पहन ले आईने
ReplyDeleteसारे देखेंगे अपना ही चेहरा ॥
सबको सारे हसीन लगेंगे यहाँ
मंसूर बनारस नही पर्शिया से थे
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