यूँ तो सभी ब्लॉग एक से हैं याने ब्लॉगर की मानसिक जुगाली के पीकदान ! मग़र, वो कहते हैं न ,"there is always a first among equals" । सो इस कसौटी पे परखा जाए तो रह-रह कर एक ही नाम फिज़ा में उभरता है बल्के तमाम कायनात चीख़-चीख़ कर एक ही ऐलान करती है ----''सस्ता शेर '' और इस ऐलान में वो दहाड़ शामिल है दोस्तो के अच्छे -अच्छे आलिम फ़ाज़िल ब्लोगरान की हवा खुश्क़ हो जाय,वो मर जाएँ पानी मांगते -मांगते । ये वो मंच है दोस्तो जिसे तशकील देने वाला शख्स इरफान आज ख़ुद इस पे contribute नहीं कर रहा है और वो तमाम लोग जिनके साथ ये आन्दोलन शुरू हुआ आज अपने-अपने ब्लोगों में मसरूफ हैं , ये खाकसार ख़ुद उनमें से एक है , मग़र बावजूद इसके ये ब्लॉग आज भी अपने आप शान से चल रहा है । इसकी रफ़्तार ज़ुरूर धीमी हुई है मग़र फ़िर भी मेम्बरान में न सिरिफ इज़ाफा हुआ है बल्के वो गिरावट की नई हदें चूम लेने पे अमादा हैं। इस खाकसार ने ब्लॉग्गिंग का 'ककहरा' इसी अज़ीमो-शान मंच पे सीखा। मुझे याद हैं २००७ से २००८ के जून -जोलाई तक के वो दिन जब जनाब अशोक पांडे, विजय शंकर चतुर्वेदी ,मनीष जोशी और ख़ुद इरफान जैसे संजीदा ब्लॉगर वहाँ मिला करते थे बल्के कहें पाये जाते थे , हंसी -ठट्ठे की महफिलें जमती थीं और कोई किसी को दबाने की कोशिश करता नहीं दीखता था चूंकि हर कोई अपने को दूसरे से ज़ियादा गिरा हुआ साबित करने की कोशिश में था । इस ब्लॉग को लेकर अख़बारों में भी २-३ दफे तारीफें छपीं फ़िर जाने क्या हुआ पुराने लोग अपने आप दूर होते चले गए शायद इसलिए के 'कैथार्सिस' का उनका अनुभव पूरहो चुका था । यहाँ बगल में ब्लोगरोल पे चीप- टाइगर्स नाम से जो लिंक लगा है उसके ज़रिये आप जायें २००८ की होली वाली पोस्टें देखें । आप ख़ुद समझ जायेंगे के असल ब्लॉग्गिंग क्या होती है । एक से एक extempore तुकबन्दियाँ और शेर ! एक दिन जब हिन्दी ब्लॉग्गिंग का इतिहास लिखा जाएगा इस ब्लॉग का नाम सुनहले लफ्ज़ों में जगह पायेगा , आमीन !
ब्लाग अनोखा है, इस में कोई शक नहीं।
ReplyDeleteसही लिखा है।
ReplyDeleteमंदी है तो
ReplyDeleteसस्ता शेर
मंदी भागेगी जब
तब क्या महंगा
हो जाएगा शेर।
सही है..
ReplyDeleteसस्ता शेर.. क्या बात है..
पा जी तुस्सी ग्रेट हो !!थ्वाडा ब्लाग भी धांसु च फ़ांसु है जी !! और सस्ता शेर के क्या कहने बस मौजा ही मौजा !!
ReplyDeleteसही कहा ...
ReplyDeleteसही है
ReplyDeleteब्लाग अनोखा है जी !
ReplyDeleteहै तो वाकई अनोखा.
ReplyDeleteवाकई अनोखा.
ReplyDeleteदिल्ली में चलने वाले कुछ आटो और रिक्शों पर ऐसे शेर लिखे देखता था, तो दिल सोचने पर मजबूर हो जाता था। कुछ शेर हल्के-फुल्के होते थे, बहुत सस्ते। बस यूँ समझिये कि आपके "चीप टाईगर्स" ने घर की याद दिला दी! लिंक देने के लिये बहुत शुक्रिया! टाइगरबाजी जारी रहे!
ReplyDeleteहम भी गए है इस गली कई बार। दाम में सस्ते भले हों ये शेर पर गुणवत्ता में कीमती।
ReplyDeleteमुनीश भाई! मैंने तो अपने ब्लॉग की शुरुआत ही सस्ते शेरों का नाम लेकर की थी! आप के इस चिंतन से सस्ते शेरों में नई सस्तई आएगी! सस्ता सलाम!
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