Friday 9 March 2012

11.03.11 - यादें दुनिया के सबसे ख़ौफ़नाक ज़लज़ले की

जापान की राजधानी तोक्यो में एक विशाल इमारत की छठी मंज़िल के जिस हॉल में बैठना होता है उसमें दुनिया भर के दीगर मुल्कों के बाशिंदे बैठते हैं । पीछे थाईलैंड वाले हैं , बगल में वियतनाम, म्यामां और इंडोनेशिया हैं और फिर चीन, रूस , स्पेन, फ्राँस, अरब, ईरान, अफ़्रीका वगैरह-वगैरह की कतारें चलती चली गई हैं । ठीक सामने पाकिस्तान है जिस पर मेरे समकक्ष जनाब जाफ़र साहब की चौकी है । बलोचिस्तान के बाशिंदें हैं । खास बातचीत नहीं थी क्योंकि करगिल का मैं गवाह हूँ ।
बहरहाल, दोपहर के क़रीब पौने दो बजे जब उसने दस्तक दी तो उस पल सबसे पहला जो अहसास हुआ वो समंदर में लंगर डाले इकलौते जहाज़ का है जिसमें मैं कभी सवार हुआ हूँ । योकोहामा की खाड़ी में ये विश्वयुद्धकालीन जहाज़ -हिकावा मारू- अब भी खड़ा है जस का तस जिसे मैं कुछ दिन पहले देख कर आया था और लहरों की थरथराहट का जो अहसास उसके सबसे नीचे एंजिन वाले तल्ले में था कुछ वैसा ही अहसास..बस । वो विशाल हॉल मानो लहरों पे धरा था ।
खिड़कियाँ बजी तो नहीं लेकिन उन पर पड़ी वेनेशियन ब्लाइंड्स और उन्हें खींचने वाले तारों का हिलना, हर डेस्क पर छत से लटकी नेम प्लेट्स का हिलना और फिर दरवाज़ों की चूलें हिलने का अहसास जो लगातार बढ़ता जा रहा था । शुरू में कोई खास सुगबुगाहट नहीं लेकिन फिर चेहरों का रंग उड़ना, माथे पे छलछला आए पसीने और डेस्क के नीचे हो जाने की घोषणा । दो मिनट में टेलिविज़न तस्वीरें दिखाने लगा था और आठ दशमलव कुछ के भूकंप का फ़्लैश आने लगा था जो कई रोज़ बाद संशोधित होकर नौ रहा बताया गया । बहरहाल क़रीब पाँच या छः मिनट का वो वक्फ़ा सदियाँ बन कर गुज़रा । मैं अपनी कुर्सी पर ही था याद करते हुए कि अंत समय में ईश्वर को याद करो तो भी जनम भर के पाप खतम लेकिन ईश्वर को मेज़ के नीचे भी याद किया जा सकता था फिर मैं क्यों बैठा रहा ऊपर-ऊपर से मुस्कुराते और क्यों मेरे सामने जाफ़र साहब भी मुस्कुराते बैठे थे ? ये हमें उस वक्त ख्याल नहीं आया लेकिन जब वो दौर थमा और हमने पाया कि हम दो ही बैठे हैं तो हँसते हुए गले मिले और कहा कि अब तो नीचे चलें ।
नीचे उतरते ही देखा समुराई योद्धाओँ की पोशोकों में खड़े कुछ लोग बतिया रहे थे जो किसी टीवी ड्रामा की शूटिंग रोक बाहर निकल आए थे , हैलिकॉप्टर उड़ान भर रहे थे , हैल्मेट धारी रक्षा दल हरकत में आ चुके थे और अभी त्सुनामि की प्रलयलीला का सीधा प्रसारण बाक़ी था । बहरहाल, मैंने उनसे पूछा नहीं कि आप क्यों मेज़ के नीचे नहीं हो गए क्योंकि मैं जानता था कि उनका जवाब वही होगा जो मेरा लेकिन सारी दुनिया के बाशिंदों के बीच इस अनुभव ने हमें क़रीब तो ला ही दिया था । बहरहाल, उसके बाद जो कुछ हुआ वो आप सबने देखा । पूर्वोत्तरी जापान में समंदर सब कुछ लील गया था । मकान, जहाज़, बिजली के ट्राँसफ़ार्मर , गाडियाँ, हैलिकॉप्टर सब कुछ ऐसे उछाला जा रहा था जैसे बच्चे खिलौनों को फ़ेंकते हैं । लेकिन उसी इलाक़े में दौड़ती हुई 37 बुलट ट्रेन्स अपने सेंसर्स की बदौलत जाम हो गईं थीं और किसी का बाल बाँका नहीं हुआ ।
तोक्यो शहर में भूकंप क़रीब 7 के आसपास बताया गया लेकिन सबसे बड़े फैशनेबल और भीड़ भरे इलाकों में शुमार शिबुया में मुझे कोई अफ़रा-तफ़री नहीं दिखी सिवा इसके कि लोग तबाही के दृश्य रात के दो बजे भी सड़कों के किनारे लगी स्क्रीन्स पर देख रहे थे और स्मोकिंग ज़ोन की बजाय आज सड़क पर ही सिगरेट पी रहे थे... बस । तबाही का मंज़र लाइव टेलिकास्ट हो रहा था सड़कों के किनारे लगे विशाल टीवी स्क्रीन्स पर, लोग देख रहे थे लेकिन बिल्कुल ख़ामोशी पसरी थी हर तरफ़ । तोक्यो से महज़ सौ किलोमीटर पर ओशिमा द्वीप में भयंकर तबाही हुई और सेंदाइ, मियागी, फ़ुकुशिमा तो आपने देखे ही हैं । तोक्यो में रहने वालों के परिवार , नातेदार इन इलाक़ों में उनकी आँखों के सामने काल के गाल में जा रहे थे लेकिन सब उस अनुभव को ज़हर का घूँट-घूँट कर पी रहे थे और ये टीवी पर दिखने वाले दृश्यों से कई गुना खौफ़ज़दा मंज़र था । जहाँ-जहाँ पानी की मार हुई कुछ बचा नहीं । फ़ोन तो भूकंप आते ही ठप्प हो चुके थे मगर फ़ेसबुक, ट्विटर और जी चैट से काम बराबर चल रहा था । ट्रेनें ठप्प थीं । लोग लाइऩों में खड़े इंतज़ार कर रहे थे और कुछ अखबार बिछा कर स्टेशनों पर ही पसर गए थे । कोई धक्का-मुक्की , कोई शोर-शराबा नहीं । शाम के छः बजते-बजते स्टोर्स से सामान गायब होने लगा था और ये स्थिति अगले कई दिन तक रही और फिर परमाणु बिजली घरों में विस्फोट, विकिरण और दूषित जल जल की अफ़वाहों का दौर जो अब भी जारी है। उस रात , मैं भारी भीड़ के बावजूद रात के ढ़ाई बजे आराम से ट्रेन पकड़ कर घर पहुँचा । खुदा ना करे दिल्ली में छः का भी आ जाए !
घर में अलमारियों के पल्ले खुले हुए थे और आफ़्टर शेव लोशन की एक खाली शीशी वॉशबेसिन में गिरी पड़ी थी, मेज़ घड़ी और टेलिफ़ोन सरक कर किनारे आ चुके थे और गिरने से बाल-बाल बच गए थे ।अपनी टैक्नोलॉजी के बल पर जापान ने दुनिया के सबसे भयंकर भूकंप को जीत लिया था लेकिन समंदर पर किसका ज़ोर है और अगर ज़मीन ही पैरों के नीचे से फ़ट कर सरक जाए तो किसके कल्ले में ताक़त है जो उसे रोक ले । लेकिन जिस तेज़ी से जापान ने इस महाआपदा का मुँह तोड़ जवाब दिया है वो बताता है कि जीना और मरना जैसा जापानी जानता है उसके लिए एक सैल्यूट तो बनता ही है ।सारी दुनिया ने ऐलान कर दिया की जापान अब खत्म हो चुका है और अगले दिन फ्राँस के मशहूर अखबार ला मोंद की हैडलाइऩ तो अक्षरशः यही कहती थी लेकिन जापान अब भी वहीं खड़ा है, खत्म अमरीका हो रहा है । बहरहाल... भूकम्प को टैक्नॉलजी जीत सकती है लेकिन मौत को नहीं ।

7 comments:

  1. यादे वाकई गजब की है! सही कहा है कि जब जमीन ही फ़ट जाये तो फ़िर कौन बचाये?

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    1. संदीप भाई एक नहीं कई जगह पर ज़मीन के फ़टने की भीषण घटनाएँ हुईं यहाँ पर ।

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  2. @जीना और मरना जैसा जापानी जानता है उसके लिए एक सैल्यूट तो बनता ही है।
    हमारा भी सलाम। जापानियों की जिजीविषा अनुकरणीय है। पता ही नहीं लगा कब इस प्राकृतिक आपदा की बरसी भी आ गयी। आपको सरहद के पार से एक मित्र मिला, बधाई। इधर मुझे भी कुछ मित्र मिले हैं पाकिस्तान से।

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    1. आप अपने जापानी मित्रों को भी मेरा लिखा बताइए कृपया ।

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  3. Mujhe aaj wo samay phir se yaad aa gaya,us sankshipt samvad ke saath jo us bhayanak zalzale ke thodi der baad kushal kshem janane ke liye facebook ke zariye aap se hua tha.Jo nahin rahe unko vinamr shraddhanjali aur unke parijanon ke prati gahri samvedna.Japan aise kai bhayanak jhatkon ke baad baar baar ye batata raha hai ki wo ek bemisal mulk kyon hai.Magar apka ye kahna bahut ghaurtalab hai ki..... भूकम्प को टैक्नॉलजी जीत सकती है लेकिन मौत को नहीं ।

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    1. हाँ शरद भाई वो कैसे भूल सकता हूँ मैं । इस तरह देखें तो फेस बुक इतनी बुरी भी नहीं जितनी लोग कहते रहते हैं । आशा है जल्द ही कुछ अखबार की कटिंग मिलेगी तुम्हारी ओर से जिससे कुछ खून बढ़ेगा ।

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