Tuesday 16 March 2010

मयखाने में गुलाब

गुलाब खूबसूरत है मग़र इतना 'ओवर-एक्स्पोस्ड' भी कि इसकी खूबसूरती पे दिल मचलता नहीं , तोड़ ही लेने को हाथ बढ़ते नहीं । फिर इसकी वो जानी -पहचानी महक जो कई मंदिरों , मज़ारों , श्मशानों और होटल की लौबियों की स्मृतियों का अजब घाल-मेल पैदा करती है । मैं जंगलों में आप ही आप खिल उठने वाले निराले , मदमाते गुलों का शाद हूँ और उन्हें देर तक निहारा और चूमा है मैंने मग़र गुलाब के बेज़ा औ' बेतहाशा इस्तेमाल में इस फूल का भला क्या दोष ? बस यही सोच कर रोज़-गार्डन हो आने का न्योता मैं ठुकरा न सका । ये कोई 4 रोज़ पहले की बात है और तस्वीरों में दिखने वाले ये गुलाब अब तक मुरझा गए होंगे . बकौल एक फ़िल्मी शायर , " खिलते हैं गुल यहाँ , खिल के बिखरने को , मिलते हैं दिल यहाँ मिल के बिछड़ने को....."

9 comments:

  1. बेज़ा इस्तेमाल में गुलों का दोष कंहा?वाह मुनीश भाई हर तस्वीर सच मे गुलाब सी खूबसूरत और महकती हुई एकदम ताज़ा।

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  2. हैं? आप चार दिन पहले गये थे। मैं तीन दिन पहले। अच्छा लगा।

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  3. bahoot badhiya bataaya rose-garden ke baare me...

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  4. इतने सारे ख़ूबसूरत गुलाब मयखाना में सजाने के लिए आपका धन्यवाद मुनीश भाई! केनेडी और मर्लिन मुनरो का आभार:)

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  5. रोज गार्डेन बढ़िया लगा और गुलाब के फूलो की फोटो देखकर अच्छा लगा... मुनीश जी धन्यवाद

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  6. Nice photographs; esp. my favourite dark red rose.

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  7. Thank you all dear ones for sharing my post !

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