Sunday, 6 November 2016

दूषित कविता

चिड़ी के ग़ुलाम
हुकुम के अट्ठे
और
उल्लू के पट्ठे
कह रहे हैं कि:
आपात्काल चल रहा है !
राष्ट्रचीते ,
कचिया पपीते
और
बारूद के पलीते
कह रहे हैं कि:
मधुमास चल रहा है !
मैं बोल पा रहा हूँ कि:
बस श्वास चल रहा है !
ये प्रदूषण मुझको खल रहा है ।
ये हरामी शहर दरअस्ल जल रहा है

# प्रदूषित कविता

Tuesday, 8 October 2013

हो जिसकी ज़ुबाँ उर्दू की तरहाँ...

बड़ी मीठी और तहज़ीब से लबरेज़ जुबाँ है साहब और खासकर तब जबकि आला दर्जे के दानिश्वर समझाने की
 
गरज से सीधी-सरल बहती सी अदा से बात रखते हों । अभी हाल में यूँ ही सायबराबाद के एक सफ़र में ये मोती
 
मिल गया । हुकूमते बरतानिया के ताव्वुन से चलने वाले बीबीसी और सरहद पार के आवाज़ टीवी की पेशकश है
 
 । मैं तो सुन कर सन्नाटे में आ गया के मानो सिलड़ी का रायता छक लिया हो जग भर । क्या आपको भी ऐसा
 
 ही कुछ-कुछ होता है ? अगर हाँ तो ऐ क़द्रदाने सुखन शर्मइयो नहीं , कह दीजो यहीं कमेंट के बक्से में ।
 

Monday, 12 August 2013

सच का अंधड़, इल्म का तूफ़ान इन पाकिस्तान

अग़र आपके विडियो को लोड होने में देर लग रही है तो इसमें किसी विदेशी ताक़त का ही हाथ हो सकता है जो नहीं चाहती कि आप एक सच्ची आवाज़ को सुन सकें । आमीन ।

Thursday, 8 August 2013

मर चुकी लड़की का गीत

                   शिन्दा ओन नानोको अर्थात् मर चुकी लड़की का गीत --1967
                                        गीतकार, गायक - तोमोया ताकाइशि



 आज से 68 साल पहले छः अगस्त 1945 को हिरोशिमा शहर पर सुबह सवा आठ बजे हुए अणु बम हमले में मरी एक लड़की हम सब से कुछ कहती फिरती है लेकिन कोई सुनता नहीं उसकी । तुम सुनते हो क्या ?



जापानी से हिन्दी अनुवाद--

खोलो दरवाज़ा
खटखटाती हूँ द्वार मैं
नहीं दिखती हूँ
पर डरो नहीं
मैं हूँ वही जो मारी गई थी कोई दस साल पहले
जब थी मैं सात बरस की
हिरोशिमा में जब गिरा था वो बम
अब भी हूँ सात बरस की
मरे हुओं की भी उम्र बढ़ती है कहीँ
डरो नहीं
मुझे नहीं चाहिए तुमसे गोली, चावल या फिर डबल रोटी
काग़ज़ की तरह जल चुकी मैं तो
मुझे चाहिए सिर्फ़ दुनिया में शान्ति








Saturday, 18 August 2012

तोक्यो में एक दोपहर नेता जी के साथ





जापान में नेता जी की पुण्य तिथि अठारह अगस्त मानी जाती है और उसमें 100-150 जापानी इकट्ठे होते हैं । पिछले 66 बरस से हर साल उनकी बरसी यहाँ बड़ी श्रद्धा से मना रहे हैं जापानी । खास बात ये है कि आयोजनस्थल साल में एक बार ही खोला जाता है आम जनता के लिए और 18 अगस्त वही तारीख है ।

इस बार इत्तेफ़ाक़ से भारतीय भी 20-30 नज़र आ रहे थे ।दरअसल यहाँ रह रहे युवा भारतीय आईटी इंजीनियरों  में अपनी जड़ों से दोबारा जुड़ने की एक ललक सी दिखाई देती है और उसी के चलते कुछ नौजवानों ने यहाँ आने का आह्वान किया था । दफ़्तर के काम से मैं भी मौजूद था ।जापानियों में उनके साथ काम कर चुके सिपाही और उनके परिजन होते हैं । ये एक विशुद्ध धार्मिक रस्म होती है जो रैंको जी मंदिर में बौद्ध रीति से निभाई जाती है और वहाँ उनकी अस्थियाँ रखीं हैं ऐसा जापानी पूरी श्रद्धा से मानते हैं । मैं इन पलों का गवाह रहा और उनके साथ काम कर चुके सेनानियों से भी बात करने का भरपूर अवसर मिला । उनमें से एक यामामोतो जी 90 बरस के हैं और हर साल सलाम करने पहुँचते हैं । कहने लगे वो अमिताभ बुद्ध की तस्वीर देखते हो वहाँ बस कुछ वैसा ही जलाल था उनमें । बूढ़े , परदेसी फ़ौजियों की पार्टी में किसी ने हम हिन्दुस्तानियों को पराये पन से नहीं बल्कि बेपनाह मोहब्बत से देखा वो भी महज़ इसलिए कि हम सुभाष के मुल्क से आए हैं । इनमें से किसी के नाज़ की वजह ये थी उससे सुभाष ने कहा था अब तुम आराम करो थक गए होगे , तो किसी की ये कि वो कई रात उनके कमरे की रखवाली की  ड्यूटी पर रहा । भारत में नेता जी की ग़ैर मौजूदगी सबसे बड़े राज़ की संज्ञा पाती है लेकिन यहाँ सब कुछ वैसे हुआ जैसे किसी दिवंगत आत्मा के लिए होता है । हाँ यामामोतो जी ने ये ज़रूर कहा कि वो भगवान् से एकाकार हो गए तभी तो उनको पूजा में रखते हैं हम यहाँ इस मंदिर में ।अस्थियाँ एक डब्बे में हैं वैसे ही जैसे किसी फ़ौजी की तब होती थीं जिस पर अंग्रेज़ी में बड़े बेढब से अक्षरों में उनका नाम लिखा है और इसे सुनहरे छत्र के नीचे रखा गया है । भारत में अभी उनका मामला विचाराधीन है लेकिन यहाँ ऐसे मनती देखी देखी उनकी पुण्यतिथि कि जैसे किसी परिवार के सदस्य की होती है यहाँ । लोगों ने आधे घण्टे पहले पहुँच कर उसी तरह श्रद्धांजली संदेशों के लिफ़ाफे दिए जैसे वो अपने घरों में देते हैं और उसके बाद भोज हुआ वो भी बिल्कुल वैसा ही । 

एक बूढ़ी जापानी महिला हिन्दी में गा रही थीं दुनिया रंग रंगीली रे बाबा और दिल्ली जाएँगे ...हम दिल्ली जाएँगे । कहती थीं उस फौज के हिन्दुस्तानी हाई क्लास फ़ैमली के लोग थे । हाई क्लास ये उन्हीं का शब्द है जिसे मैं जस का तस कहा । मोर्चे पर कैसे दिखते थे सुभाष और अकेले बैठे कैसे नज़र आते थे ये भी यादें ताज़ा हुईं साहब । लेकिन कुल मिलाकर इस आयोजन में दैवी आस्था का गहरा रंग था और नेता जी सशरीर हैं या नहीं ये तो दावा मैं नहीं करता लेकिन मोर्चे के जापानी साथियों के दिलों में अब भी लहू बन के दौड़ रहे हैं वो ये अपनी आँखों से देख लिया मैंने आज और वो हाथ मिलाना दूसरी जंगे अज़ीम के बूढ़े शेरों से उस तजुर्बे का तो कोई मुक़ाबला ही नहीं है जनाब कोई शक़ ?